Friday, December 7, 2012

मैं इतना सोच सकता हूँ - 10

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मैं अंधों को दिखाकर रास्ता संतुष्ट होता हूँ
मगर इन स्वस्थ आँखों की व्यथा पर रुष्ट होता हूँ
नहीं उपलब्ध साधन साध्य फिर भी व्योम छूना  है
मैं इतना सोच सकता हूँ नहीं संतुष्ट होता हूँ

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मैं अक्सर रात को उठ बैठकर सपने सुलाता हूँ
भरी आँखों से सारी स्रष्टि की रचना भुलाता हूँ
मेरी हर थपथपाहट पर वो सपना मुस्कराता है
मैं इतना सोच सकता हूँ मैं अपना कल सजाता हूँ

53

मैं अँधा हो चुका हूँ देखकर अंधी हुई दुनिया
मेरी आंखें भी ढूँढें हैं कोई क्रेता कोई बनिया
नयी सी रौशनी लेकर कोई बालक बुलाता है
मैं इतना सोच सकता हूँ मेरे कंधे तेरी दुनिया


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1 comment:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
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    आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (09-12-2012) के चर्चा मंच-१०८८ (आइए कुछ बातें करें!) पर भी होगी!
    सूचनार्थ...!

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