Thursday, July 17, 2014

पहिये

हम अब थक चुके हैं
पंचर हो या न हो
हमे रुकना ही पड़ेगा
बिना मुकाम पर पहुंचे


या फिर
देश

संस्थान की तरह
चलते रहेंगे
जुगाड़ से
राम भरोसे
भोले शंकर की कृपा से
जुगाड़ से जोड़े हुए
पंचरों के सहारे
फिर चाहे तपी धूप हो
या
वर्फ से दूधिया सड़क
हमारा काम चलना ही तो है
यही सब सिखाया गया है हमको
चरैवेति-चरैवेति


और तुम
जो मालिक समान
लदे हुए हो हम पर
बिना किये लिहाज
हमारी उम्र का
हमारे कद का
(कद जो कभी हमारा अपना न हो सका)


मानो
हमारी वेदना को जानो
हम अब थक चुके है
हमे चाहिए विराम
यदि पूर्ण नहीं
तो कम से कम
अर्धविराम


कोई नहीं जानता है मुकाम
तुम फिर क्यों चला रहे हो हमे
तुम क्यों नहीं देख पा रहे हो
रिस्ता लहू
तुम संभवतः
जानकार भी अंजान बनने का
कर रहे हो ढोंग


हम पहिये
देखना चाहते हैं तुमको
बनते हुए पहिये
और करना चाहते हैं
तुम पर सवारी
तुमको जताना चाहते हैं
मुकाम पर पहुंचने के लिए
कभी न कभी
हम सभी को बनना पड़ता है
पहिया
और हम इस पूर्वाग्रह से ग्रसित रहते हैं
कि रौंदते रहेंगे पहियों को
बिना किसी डर के
उनके पंचर होने की
लेशमात्र भी आशंका के परे
इसीलिए कभी नहीं पहुँचते हैं
अपने मुकाम पर
जीवन भर चलते रहने के बाद भी


समझो हमारी पीड़ा
हम अब थक चुके हैं
पंचर हो या न हो
हमे रुकना ही पड़ेगा
बिना मुकाम पर पहुंचे


(प्रो० एस के मिश्र द्वारा निम्न कविता मिली___ उसके उत्तर में उपरोक्त पंक्तियाँ भेजी)


पहिये


हम टायर लगे पहिये हैं
जो अपने फेंफड़ों में दम रोके
जेठ की धूप में
तवे सी जलती ऊबड़ खाबड सड़कों पर दौडते
गाड़ी को सर पर लिए
चार गधों को
जिसे सवारी कह्ते हैं
मुक़ाम के क़रीब तक ले जाने के लिए ही
जी रहे हैँ ।


नहीं जानते, कब, कहाँ और किस वज़ह से
हम में से एक
पंक्चर हो जाएगा,
दम तोड़ देगा
बीच सड़क पर
वहां
जहाँ से सवारियों के मुक़ाम
बहुत, बहुत दूर हों
और
पंक्चर बनाने वाले की दूकान
ढूंढे न मिलती हो ।


प्रभु, ऐसा न होने देना
शंकर, तेरा सहारा
बुरे का हो मुँह काला
फ़िर मिलेंगे ।
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सुधाँशु

आंखें

मेरी आंखें झुकेंगी कृत्य
यदि संहार का होगा
मेरी आंखें उठेंगी कृत्य
यदि ना प्यार का होगा
सभी को आँख की भाषा
समझनी चाहिए मित्रो
बस इतना सोचता हूँ
कब यही संसार का होगा

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Thursday, July 3, 2014

भवन प्रतीक्षा में है

भवन का द्वार
प्रतीक्षा में है
कोई आए
उस पर लगी जंग हटाये
उसको खोले, सहलाये
उस पर जमी धूल पर
अपने निशान लगाये
अपनी उपस्थिति पंजीकृत कराये
कोई आए

भवन का बगीचा
प्रतीक्षा में है
कोई आए
मिटटी खोदे
क्यारियां बनाये
कोई आए
आशा के बीज बोए
फूलों से इस बगीचे को सजाये
कोई आए

किन्ही निर्देशों के अभाव में
भवन के माली
हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं
बीज और खाद की प्रतीक्षा में
कोई आए

भवन की दीवारें, दरवाजे व खिड़कियां
अपनी विवशता में रो रही हैं
प्रतीक्षा कर रही हैं
किसी नवीन स्पर्श की
चटकनियां रुष्ट हैं
उनको खोलना आसान नहीं होगा

भवन के पर्दे रोष में हैं
किसी भी प्रकार के वायु प्रबाह का
कोई प्रभाव नहीं है उन पर
खिड़कियों-दरवाजों ने
उनको जकड़ रखा है
(विश्वविद्यालयी नियमो-अधिनियमों की भांति)
परदे भूल गए हैं हिलना

भवन प्रतीक्षा में है
कोई आए

भवन की चल संपत्ति
कुछ डरी हुई है
चल अलमारी, सोफा, कुर्सी, मेज
इत्यादि सब
कुछ डरे हुए हैं
कहीं भवन का नया मालिक
उनको तिरस्कार की दृष्टि से न देखे

भवन में
किसी के न होते हुए भी
भवन की गाड़ी चल रही है
विश्वास कीजिये
भवन की गाड़ी चल रही है
संस्थान की गाड़ी भी चल रही है
मालिक की अनुपस्थिति में भी
भवन की गाड़ी चल रही है
परन्तु फिर भी
भवन प्रतीक्षा में है
कोई आए

भवन परिसर में लगे पेड़
किसी प्रभाव
व अभाव से परे
मस्त हैं
झूम रहे हैं
न तो इन्हें प्रतीक्षा है
मालिक की
न ही किसी माली की
और न ही उनका अस्तित्व
खतरे में है
(पौधों की तुलना में)
पेड़, पेड़ है
प्रकृति पर निर्भर पेड़
किसी भी मानवीय स्पर्श की
चेतना से परे

रौंदा तो पौधों को जाता है
बदल दिया जाता है
मौसमानुसार
अच्छे फूलों की आशा में
मौसमी फूलों की आशा में
बहुत से पौधों को
नहीं बनने दिया जाता है पेड़
उनमे पेड़ बनने की पूरी क्षमता
होते हुए भी
माली मात्र
मालिक के निर्देशों का पालन करते हैं
स्वेच्छा के विरुद्ध

मिटटी प्रतीक्षा में है
कोई आए

इतना बड़ा भवन
कितना छोटा हो जाता है
बड़े-बड़े पेड़ों के होते हुए भी

भवन प्रतीक्षा में है
कोई आये
इसको
अपनाये
सजाये
महकाए
इसका हो जाये
कोई आए

भवन अनभिज्ञ है
कि
भवन की गाड़ी चल रही है

(पिछले एक वर्ष से किसी स्थाई कुलपति के अभाव से विश्वविद्यालय में वर्तमान में चल रहे गतिरोध व महत्वपूर्ण निर्णयों में हो रहे विलम्ब को समर्पित इस कविता का जन्म कुलपति निवास के सामने से निकलते चलते हुआ)